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कविता

करती रही इंतजार

सदानंद शाही


जब मैं सीता थी
अपने वनवासी पति का सिर गोद में लिए
बैठी ही तो थी
भविष्य की बाट जोहती
देवताओं के राजा इंद्र के बेटे जयंत ने
मेरी छातियों को लहूलुहान कर दिया

जब मैं अहिल्या थी
अपनी कुटिया में सोई आधी नींद में
पति गौतम का इंतजार करती हुई
देवताओं के राजा इंद्र के
छलात्कार का शिकार बनीं

आकाश में चमकने वाला चंद्रमा
सिर्फ गवाह नहीं था
पूरे वाकये में शामिल था

देवताओं का देवत्व
इस कदर बरपा
कि मैं
पथरा गई

जब द्रौपदी हुई
अपने पाँचो पतियों की अनुगामिनी
(सनद रहे कि
मैंने नहीं वरा था पाँच पतियों को
माता कुंती के आदेश से
बाट दी गई बराबर बराबर)
मैं नहीं खेल रही थी जुआ
सिर्फ दाँव पर चढ़ा दी गई थी
मैं हारी नही थी
सिर्फ जीत ली गई थी
लाई गई दुर्योधन की सभा में
पाँचो पतियों के साथ
और दु:शासन के पशुबल से
अपमानित हुई

कोई साधारण सभा नहीं थी वह

वहाँ पितामह भीष्म थे
वहाँ द्रोणाचार्य थे
वहाँ कृपाचार्य थे
और जाने कौन कौन से आचार्य थे
सब धृतराष्ट्र थे
एक स्त्री निर्वस्त्र की जा रही थी
और यह महान सभा देख रही थी
महारथी चुप थे
रश्मिरथी चुप थे
आचार्य चुप थे
इतिहासवेत्ता
नीति निर्माता
सब चुप थे
सोचती हूँ क्यों चुप थे सब!
कि दोष मेरा ही था
कि मेरे परिधान दोषी थे
नहीं तो
मेरे स्त्री शरीर का दोष तो होगा ही होगा

मैं इस स्त्री शरीर का क्या करूँ
जिसको लिए दिए
देवताओं
महारथियो
आचार्यो
के
कल, बल, छल का
शिकार होती रही
पत्थर बनती रही
मुक्ति के लिए
किसी पुरुष के पैरों की ठोकर का
करती रही
इंतजार।

 


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